BA Semester-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2632
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत

प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

इकोयणचि।

अनुवाद - संहिता के विषय में, स्वर वर्ण परे होने पर इक के स्थान में यण् = यण् होता है।
व्याख्या - यह यण् सन्धि विधायक विधिसूत्र है। 'संहिताया' इस अधिकार सूत्र से यहाँ संहिताया पद की अनुवृत्ति आती है। संहिता का अर्थ है - वर्णों की अतिशय समीपता। दो वर्णों की संहिता (अतिशय समीपता) तभी होगी जब दोनों का अव्यवहित उच्चारण किया जाये। अतः इक् के बाद अवधान अर्थात् इ उ ऋ रहित (अर्थात ठीक आगे) स्वर वर्ण के होने पर ही इक् अर्थात् इ उ ऋ लृ के स्थान पर यण् (य्, व्, र, ल्) आदेश का विधान यह सूत्र करता है। चारों आदेशों के उदाहरण क्रम से सुधी + उपास्यः = सुदध्युपास्य मधु + अरि = मध्वरि, धातृ + अंशः = धात्रंश तथा लृ + आकृति = लाकृतिः हैं। सुधी + उपास्य इस स्थिति में यहाँ तीन इक दिखाई पड़ते है। सु का उकार, धी का ईकार तथा उससे परवर्ती उपास्य का उकार। इन तीनों इक् वर्णों के बाद स्वरो की स्थिति भी है अतः तीनों इकों में यण किसे हो यह सन्देह होता है। अगले सूत्र में इसी का समाधान है।

तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य।

अनुवाद - सप्तम्यन्तपद के उच्चारण से किया जाने वाला कार्य = दूसरे वर्ण से व्यवधानरहित पूर्व वर्ण को जानना चाहिए।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। नियम का निर्देश करने वाले सूत्रों को परिभाषा सूत्र कहते हैं। इस सूत्र में 'तस्मिन् पद का अर्थ है 'सप्तम्यन्त पद' तथा 'निर्दिष्टे का अर्थ है 'अव्यवहित उच्चारित। इस प्रकार वृत्ति में लिखित सूत्रार्थ स्पष्ट हो जाता है। इस रूप में यहाँ सप्तम्यन्त पद है- 'इकोयणचि' सूत्र का 'अचि उसका उच्चारण करके किया जाने वाला कार्य 'यण' कार्य है वह यण व्यवधानरहित अच् के परे होने पर उस (अच) पूर्ववर्ती इक को होगा। सुधी + उपास्यः में धकारोत्तरवर्ती इकार के ही बाद व्यवधान रहित अच् 'उ' हैं। अतः उससे पूर्ववर्ती 'ई' को ही यण् होगा। इस प्रकार इस सूत्र की सहायता से ईकार के स्थान पर यण होना निश्चित हुआ। 'ई' के स्थान पर 'य्' ही क्यो होता है अन्य यण (व्, र्, ल्) क्यों नहीं होते इसका समाधान है।

स्थानेऽन्तरतमः

अनुवाद - प्रसङ्ग होने पर अत्यन्त समान आदेश होता है।
व्याख्या - यह भी परिभाषा सूत्र है। सूत्र के 'स्थाने पद का अर्थ वृत्ति में 'प्रसङ्गे' दिया है। अन्तरतमः का अर्थ सदृशतम है। जब एक स्थान में कई आदेश एक साथ प्राप्त होते हैं तब उनमें यह सूत्र एक आदेश के निर्णय का कार्य करता है। प्रसङ्ग का अर्थ है 'कई आदेशों की एक साथ प्राप्ति। वर्णों की समानता (सादृश्य) चार प्रकार की होती है -
1. स्थानकृत = उच्चारण स्थान की समानता। जिन वर्णों के उच्चारण स्थान एक हो उन्हें समान माना जाता है।
2 अर्थकृत = अर्थ की समानता। जिनके अर्थ समान हों वहाँ अर्थकृत समानता होती है।
3. गुणकृत =  बाह्य प्रयत्न की समानता गुण का अर्थ यहाँ बाह्य प्रयत्न है।
4. प्रमाणकृत =  प्रमाण शब्द का अर्थ यहाँ मात्रा है।

इन चारों समानताओं में स्थान की समानता को श्रेष्ठ माना गया है।

'यत्रानेकविधमान्तर्य' तत्र स्थानत आन्तर्य बलीयः।
अर्थात् जहाँ अनेक विध आन्तर्य (साम्य) हो वहाँ स्थानकृत साम्य बलवान् होता है।

सुधी + उपास्य में ई का स्थान तालु है। तथा य् व् र् ल् इन चारों यण् वर्णों में से केवल 'य' का स्थान तालु है। अतः इस सूत्र की सहायता से स्थानकृत साम्य के कारण 'ई' के स्थान में 'य्' यण हुआ।

अनाचि च

अनुवाद - अच् से परे यर को द्वित्व विकल्प से होता है, किन्तु अच् परे होने पर नहीं।
व्याख्या - यह सूत्र द्वित्व विधायक है। द्वित्व = एक ही के दो रूप होना। विकल्प का अर्थ है एक पक्ष में (= एक बार) कार्य का होना और एक पक्ष में न होना। सूत्र में दो पद ही हैं- 'च', 'अनचि'। सूत्रार्थ ज्ञान के लिए 'यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा' सूत्र से 'वा' और 'यर:' की तथा 'अचोरहाभ्या द्वे' सूत्र से अच' और 'द्वे' की अनुवृत्ति की जाती है। यदि यर के बाद स्वर वर्ण न हो तो (यर) 'ह' को छोड़कर अन्य व्यञ्जनों को यह दो कर देता है। द्वित्व' विकल्प से होता है। द्वित्व के लिए 'यर' के पहले किसी स्वर का रहना आवश्यक है।

सुध् य + उपास्य में 'घ्' यर प्रत्याहार का वर्ण है और वह सकारोत्तरवर्ती 'उ अच् से परे है तथा उसके बाद में कोई 'अच्' (स्वर) नहीं है। अतः इस सूत्र में धू' को द्वित्व होने पर सुध्ध्य + उपास्य यह स्थिति हुई।

झलां जश् झशि

अनुवाद - झल् को ज‍ हो झश् वर्ण परे होने पर। इससे पूर्व धकार को 'द' हुआ।
व्याख्या - यह जश्त्व विधायक विधि सूत्र है। सूत्र में आये झल् जश् झश् तीनों प्रत्याहार है। सुध् ध् य् + उपास्यः में पूर्व धकार झल के अन्तर्गत हैं। द्वितीय धकार को 'झश्' का वर्ण माना गया है। अतः इस झल के स्थानेऽन्तरतमः परिभाषा से दन्त्य ध को दन्त्य ही जश्त्व द होता है।
सूत्र का सरलार्थ - वर्गों के तृतीय चतुर्थ वर्ण पर में रहने पर वर्गों के प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ वर्ण अथवा श्, ष्. स. ह् को वर्गों के तृतीय वर्ण आदेश हों। इस प्रकार यह सूत्र - क ख ग् घ् और ह को कण्ठ साम्य से ग, च् छ् ज् और श् को तालु साम्य से ज् ट् ठ् ड द और ष को मूर्धा साम्य से ड् त् थ् द् ध् और स् को दन्त साम्य मे द् तथा प् फ् ब् भ् को ओष्ठ साम्य से बृ आदेश करता है।

एचोऽयवायावः

अनुवाद - एच (ए-ओ-ऐ-औ) के स्थान में क्रम से, अय अब अय आवृ ये चार आदेश होते हैं। अच् (स्वर वर्ण) परे होने पर।
व्याख्या - यह अयादि सन्धि करने वाला विधि सूत्र है। यदि ए ओ ऐ औ में से किसी के बाद कोई स्वर हो तो ए के स्थान में अय्, ओ के स्थान में अव् ऐ के स्थान में आयु तथा औ के स्थान में आव आदेश होते हैं। 'संहितायाम्' अधिकार सूत्र से संहितायाम् तथा इको यणचि से अचि पद की इसमें अनुवृत्ति आती है। आदेशों का क्रम से विधान हो एतदर्थ अग्रिम सूत्र है।

यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम्।

अनुवाद - समान सम्बन्ध वाली, विधि (= विधेय), सङ्ख्या के क्रम से होती है।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। यदि उद्देश्य (स्थायी) तथा विधेय (आदेश) की संख्या समान हो तो वहाँ विधेय क्रमानुसार होता है, यह इसका तात्पर्य है। सूत्र में अनुदेश' पद का अर्थ विधेय है तथा समानाम् का अर्थ समान संख्या वालों का। यहा चार एच = ए-ओ-ऐ-औ उद्देश्य (स्थानी) हैं तथा अय्-अव्- आय-आव ये चार ही विधेय (आदेश) है अतः प्रथम ए के स्थान में प्रथम अय आदेश होगा। इसी प्रकार द्वितीय के स्थान में द्वितीय, तृतीय के स्थान तृतीय तथा चतुर्थ के स्थान में चतुर्थ आदेश होगा। चारों आदेशों के निम्नांकित चार उदाहरण हैं -
हरये - हरि शब्द से चतुर्थी एकवचन में हरये रूप होता है। हरे + ए इस स्थिति में 'यथासङ्ख्यमनुदेश: समानाम् इस परिभाषा सूत्र की सहायता से 'एचोऽयवायाव' सूत्र से प्रथम एच् ए के स्थान में प्रथम आदेश अय् हो जाता है। हर + अय् + ए इस स्थिति में 'अज्झीन परेण संयोज्यम' इस नियम के अनुसार वर्ण संयोग होने पर 'हरये प्रयोग सिद्ध होता है। हरये = हरि के लिए।
विष्णवे - विष्णु शब्द के चतुर्थी एकवचन का यह रूप है। प्रयोग सिद्धि - प्रकार पूर्वोक्त है। विष्णो + ए इस स्थिति में द्वितीय आदेश अव् होगा। वि ष् ण् अ व् ए = विष्णवे = विष्णु के लिए।
नायकः नै + अः। तृतीय एच् को तृतीय आदेश आय् न् + आय् अक = नायक नायकः नेता, ले जाने वाला।
पावकः - पौ + अकः। औ को आव् आदेश प् + आ + अक = पावकः। पावक अग्नि, पवित्र करने वाला।

वान्तो यि प्रत्यये

अनुवाद - यकारादि प्रत्यय बाद में हो तो 'ओ' को अद् तथा 'औ' को आवृ ये दो आदेश होते हैं।
व्याख्या - वान्त (अव्, आद्) आदेश करने वाला यह विधि सूत्र है। इस सूत्र में संहितायाम् इस संपूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति होती है तथा एचोऽयवायाव: की सहायता से वान्त = वकारान्त, आदेश कौन हैं, इसका ज्ञान होता है। यथासङख्यम्' सूत्र की सहायता से क्रमिक आदेश होने का ज्ञान होता है। एचोऽयवायाव सूत्र अच् परे होने पर ही आदेश करता है। यकारादि प्रत्यय के परे होने पर उससे आदेश सम्भव नहीं था, अतः इस सूत्र की आवश्यकता हुई। यकारादि प्रत्यय = ऐसा प्रत्यय जिसका प्रथम वर्ण य हो, जैसे यत् प्रत्यय।

आद्गुणः

अनुवाद - अकार से अच् वर्ण परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान में एक गुण रूप आदेश होता है।
व्याख्या - यह गुण सन्धि का विधान करने वाला विधि सूत्र है। एक पूर्वपरयो अधिकार सूत्र पूर्ण रूप से यहाँ अनुवृत्त होता है तथा 'संहितायाम' भी स्थानेऽन्तरतम की प्रवृत्ति भी इसमें है। 'इकोयणचि' से अचि पद भी अनुवृत्त होता है। आत् यह पञ्चमी विभक्ति का रूप है, आ के बाद तपर नहीं, अतः तपरस्तत्कालस्य के लगने की शङ्का यहाँ नहीं करनी चाहिए। सूत्र का तात्पर्य है कि यदि अकार के बाद इ उ ऋ लृ में कोई वर्ण हो तो अ + इ को ए, अ + उ को ओ अ + ऋ को अ (र) तथा अ + लृ को अ (ल) गुण होता है। स्पष्ट सूत्रार्थ इस प्रकार है -
सम्पूर्ण सूत्रार्थ - संहिता के विषय में हस्य, दीर्घ या प्लुत अ के बाद एच को छोड़कर अन्य असवर्ण अच् होने पर पूर्व के स्थान में एक अत्यन्त समान गुण एक आदेश होता है, जैसे-

उपेन्द्रः

उप + इन्द्र इस स्थिति में तपरतत्कालस्य की सहायता से 'अदेङ् गुण' से गुणसञ्ज्ञा हुई। 'आदगुण' सूत्र से प के अ तथा इन्द्रः के इ (अ + इ) के स्थान पर, अकार के कण्ठ समान तथा इकार के तालु स्थान के साम्य से कण्ठ तालु - स्थानीय 'ए' गुण हुआ। 'उप् एन्द्र' यह स्थिति हुई। वर्ण सयोग होने पर उपेन्द्र रूप सिद्ध होता है।

अदेङ् गुणः

अनुवाद - अत् = ह्रस्व अकार और एड् प्रत्याहार के वर्ण (ए तथा ओ) गुणसञ्ज्ञक होते है।
व्याख्या - यह गुणसञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। ह्रस्व अ. दीर्घ ए तथा दीर्घ ओ की यह सूत्र गुणसञ्ज्ञा करता है। अ ए ओ की गुणसञ्ज्ञा है। इसका तात्पर्य है कि व्याकरणशास्त्र में अ ए ओ का नाम गुण है। गुणसञ्ज्ञा हो जाने पर, 'आद गुण' आदि सूत्रो से गुण होता है। उपेन्द्र' आदि इसके उदाहरण हैं।

प्रजते

प्र + एजते इत्यत्र वृद्धिरादैच् इत्यनेन वृद्धो प्राप्तायां ता प्रबाध्य एडि पर रूपम्' इत्यनेन पूर्वपरयोः स्थाने पररूपैकादेशे प्रेजते' इति सिद्धम्। एवं उप + ओषति उपोषति।

तपरस्तत्कालस्य

अनुवाद - तकार पर (बाद में) हो जिससे वह और तकार से परे जो हो वह, उच्चारण किया गया (स्वर या स्वर समूह) समान काल का ही बोधक होता है।
व्याख्या - यह समकाल सञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। 'अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्यय' का यह अपवाद = बाधक सूत्र है। उसी सूत्र से यहाँ सवर्णस्य तथा अप्रत्यय. इन दो पदों की अनुवृत्ति होती है। 'स्वरूपम्0' सूत्र से 'स्व' की अनुवृत्ति आती है और वह षष्ठ्यन्त होकर जुड़ता है। समकालस्य तथा ये दोनों विशेषण रूप से 'सवर्णस्य इस विशेष्य पद में जुड़ते हैं। तपरः शब्द में दो समास है - बहुब्रीहि (तः परः यस्मात स तपर.) तथा तत्पुरुष (तात् परः तपरः)। सूत्र का स्पष्ट अर्थ है कि जब किसी अविधीयमान स्वर या स्वरसमूह के बाद 'त' लगा हो अथवा 'त' के बाद कोई अविधीयमान स्वर या स्वर समूह हो तब वह अपने उच्चारण काल के समान काल वाले सवर्णों का तथा अपना बोधक होता है। जैसे 'अदेङ् गुणः' में 'अत यह पद है। इसका 'अ' अविधीयमान है और इसके आगे त लगा है अतः यह अपने हस्व के सवर्णों अर्थात् 6 भेदों का बोधक है दीर्घ और प्लुत के शेष 12 भेदों का बोधक नहीं होगा। इसी प्रकार उक्त सूत्र में ही 'तू' के बाद एड़ आया है. बस (एड् = एओ) भी अपने = दीर्घ के 6 सवर्णों का बोधक है, प्लुत के द सवर्णों का नहीं। तात्पर्य यह है कि अदेङ् गुण से ह्रस्व अ तथा दीर्घ ए ओ की ही गुणसञ्ज्ञा होती है। 'यदि तपरस्त0' सूत्र न होता तो दीर्घ- प्लुत अ तथा प्लुत की ए ओ की भी गुणसञ्ज्ञा 'अणुदित.' सूत्र के नियमानुसार हो जाती है।

उपदेशेऽजनुनासिक इत्

अनुवाद - उपदेश अवस्था में अनुनासिक अच् (स्वर) इत्सञ्ज्ञक होता है।
व्याख्या - यह इत्सञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। अगले सूत्र में र प्रत्याहार का प्रयोग किया गया है। प्रत्याहार का दूसरा वर्ण इत्सञ्ज्ञक होता है। यह बताया जा चुका है। र् + अ = र प्रत्याहार के दूसरे वर्ण 'अ' को इत्सञ्ज्ञा यही सूत्र करता है तब र प्रत्याहार सिद्ध होता है। उपदेश अवस्था में जो अच् अनुनासिक हो उसकी यह इत्सञ्ज्ञा करता है। कौन सा अच अनुनासिक है? इसके लिए यहाँ बताया गया है कि पाणिनि व्याकरण पढ़ने की जो प्रतिज्ञा अर्थात् गुरु परम्परा है उसी से पाणिनीय (पाणिनि द्वारा उक्त ) अनुनासिक वर्णों का ज्ञान होता है। सूत्रकार ने अनुनासिक पाठ अलग से लिखा था पर वह नष्ट हो गया। अब परम्परा से ही अनुनासिकों का ज्ञान होता है। लण सूत्र से ल के बाद वाला (ल् + अ = ल), अनुनासिक है अतः उसकी इस सूत्र से इत्सञ्ज्ञा हो जाती है। इस अन्त्य इत् अ के साथ हयवरट् का अ रहित शुद्ध र मिला देने से 'र' प्रत्याहार बनता है। अन्तिम इत् अ के साथ कथित र सेर और ल दो वर्णों का ज्ञान होता है। अतः कृष्णर्द्धि में 'उरण् रपर' से रपर तथा तवल्कार में लपर होता है।

उरण् रपरः

अनुवाद - ऋ यह वर्ण। तीस (ऋ के अठारह तथा लृ के बारह) भेदों का बोधक है। यह बात (सञ्ज्ञा प्रकरण में 'अणु दित्सवर्णस्य सूत्र में) उक्त है। उन 30 ॠ वर्णों के स्थान में जो अण होता है, वह र पर होकर ही प्रवर्तते = प्रवृत्त होता है।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। ऋ शब्द से पष्ठी में उ: रूप बनता है जिसका अर्थ है ऋ के स्थान में। रपरः का अर्थ है जिसके बाद 'र' प्रत्याहार का वर्ण (र् या ल्) हो। तात्पर्य यह हुआ कि ऋ के स्थान पर अ इ अथवा उ में से कोई आदेश होता है तो उसके बाद र लग जाता है अतः वह रपर (रकारपरक) होकर अर इर अथवा उर हो जाता है। लृ के स्थान पर अ, इ अथवा उ होने पर वह लपर (लकारपरक) होकर अल्. इल् अथवा उल हो जाता है।

पूर्वत्रासिद्धम्

अनुवाद - सवा सात अध्यायों के प्रति = तीन पादों के सूत्र असिद्ध होते हैं। त्रिपादी मे भी, पूर्व सूत्र के प्रति परवर्ती सूत्र असिद्ध होता है।
व्याख्या - यह अधिकार सूत्र है। सूत्र का अर्थ है - पूर्व के प्रति असिद्ध हो। पूर्व के प्रति कौन असिद्ध होगा? पर। इस प्रकार सूत्रार्थ हुआ पूर्ववर्ती सूत्र की दृष्टि में परवर्ती सूत्र असिद्ध होता है। ध्यान रहे कि पाणिनि की अष्टाध्यायी में आठ अध्याय है। प्रत्येक अध्याय चार पादों में विभाजित है। यह सूत्र अष्टाध्यायी में अष्टम अध्याय के द्वितीय पाद का प्रथम सूत्र है। इस सूत्र के पूर्व सवा सात अध्याय अर्थात् सात अध्याय तथा अष्टम अध्याय के प्रथम पाद में पठित सूत्र आ चुके हैं। इसके बाद त्रिपादी अर्थात द्वितीय तृतीय और चतुर्थ पाद के सूत्र है। त्रिपादी का पहला सूत्र यही है। इसी से यहाँ पूर्व का अर्थ है सवा सात अध्याय (सपादसप्ताध्यायी) के सूत्र तथा पर का अर्थ है त्रिपादी तीन पाद के सूत्र। चूँकि यह अधिकार सूत्र हैं अधिकार सूत्र स्वयं कोई विधान नहीं करते केवल अग्रिम सूत्रों में उनकी अनुवृत्ति होती है। उनकी अधिकार सीमा अध्याय पाद के आधार पर जहाँ तक निश्चित रहती है, वहाँ तक अनुवृत्ति होती है। यह त्रिपादी के सभी सूत्रों में अनुवृत्ति से जाकर कहता है कि तुम पूर्व के प्रति प्रसिद्ध हो। जो असिद्ध होता है वह इस प्रकार मान लिया जाता है जैसे वह सूत्र है ही नहीं। उदाहरणार्थ, पूर्ववर्ती प्रयोगों में हर + इह तथा विष्णु + इह इस स्थिति में आद् गुणः 6। 1। 87 से गुण प्राप्त है। पर इस सूत्र के नियमानुसार आद्गुण. 6। 1। 87 (सपाद साप्ताध्यायी सूत्र) की दृष्टि में लोप: शाकल्यस्य। 3। 10 त्रिपादी सूत्र के असिद्ध होने से हर + इह, विष्ण + इह के बीच में य् व दिखाई पड़ने लगते है अतः गुण नहीं हो पाता हे हरे, इह = यहाँ। हरइह, है। गुण तभी होगा जब अ + इ के बीच कोई वर्ण न हो (संहिता हो) हर हरयिह हरे + इह. इस स्थिति में एचोऽयवायावः सूत्र से ए' को अय् आदेश हुआ। हर् + अ + इह यह स्थिति हुई। लोप शाकल्यस्य से य् का विकल्प से लोप हो गया। हर + इह इस स्थिति में आदगुणः से अ + इ को गुण प्राप्त हुआ। पर पूर्वत्रासिद्धम् के नियमानुसार सपादसप्ताध्यायी सूत्र आद्गुणः 6। 1। 87 की दृष्टि में, त्रिपादी सूत्र लोपः शाकल्यस्य 8। 3। 16 के असिद्ध हो जाने से गुण नहीं हुआ। हरइह प्रयोग सिद्ध हुआ।

वृद्धिरादैच्

अनुवाद - दीर्घ आ और ऐच (दीर्घ ऐ तथा दीर्घ औ) की वृद्धि सञ्झा होती है।
व्याख्या - यह वृद्धिसञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। वृद्धि एक पारिभाषिक सञ्ज्ञा है। आ, ऐ, औ की वृद्धिसञ्ज्ञा होती है। वृद्धिसञ्ज्ञा का फल है। 'वृद्धिरेचि' अथवा अन्य वृद्धि विधायक सूत्रों से वृद्धि होना। कृष्णैकत्वम् आदि इसके उदाहरण है।

वृद्धिरेचि

 
अनुवाद - अकार से एच के परवर्ती होने पर वृद्धि रूप एक आदेश होता है।
व्याख्या - यह वृद्धि सन्धि करने वाला प्रमुख विधि सूत्र है। स्पष्टीकरण के लिए आदगुणः से आत् पद तथा एक पूर्वपरयो:' इस संपूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति की जाती है। इस प्रकार सूत्रार्थ होगा - यदि आ या अ के बाद एच् प्रत्याहार का कोई वर्ण हो तो पूर्ण (अ या आ) तथा पर (एच) के स्थान में वृद्धि आदेश होता है। यह सूत्र आदगुणः का अपवाद = बाधक है। कारण यह है कि जहाँ 'वृद्धिरेचि सूत्र लगता है वहाँ 'आद्गुण' भी प्राप्त हो जाता है। यदि सर्वत्र गुण ही हो जाये तो वृद्धि करने का कहीं अवकाश ही नहीं रहेगा। अतः निरवकाश होने से यह सूत्र अपने (अ + एच् के) स्थल में आदगुण का अपवाद हो जाता है। इसीलिए कहा गया है 'निरवकाशो विधि अपवाद |

वृद्धि होने पर अ + ए = ऐ. आ + ओ = औ आ + ए = ऐ, अ + औ = औ अ + ऋ = आ (र), अ + लृ = आ (ल) हो जाते है। जैसे कृष्णैकत्वम् - इसका अर्थ है कृष्ण की एकता। कृष्ण + एकत्वम्, इस स्थिति में 'वृद्धिरादैच् सूत्र से वृद्धि सञ्ज्ञा हुई। वृद्धिरेचि सूत्र से पूर्व + पर (अ + ए) के स्थान में एक वृद्धि आदेश हुआ।

अचोऽन्त्यादि टि

अनुवाद - अचों के बीच में जो अन्तिम (अच) है जिस (समुदाय) का प्रथम वर्ण (अच्) है, इस (समुदाय) का प्रथम वर्ण हो, वह (समुदाय) टि सञ्ज्ञा वाला होता है।
व्याख्या - यह टि सञ्ज्ञा विधायक सज्ञा सूत्र है। सूत्र में अन्त्यादि' शब्द विशेषण है। इसका विशेष्य है शब्दस्वरूपम्। अन्ते भवः अन्त्य। अन्त्य आदि यस्य शब्दस्वरूपस्य तत् अन्त्यादि। स्पष्ट सूत्रार्थ इस प्रकार है शब्द के जितने स्वर हैं उनमे अन्तिम स्वर के बाद यदि कोई व्यञ्जन हो तो उस व्यञ्जन सहित अन्तिम स्वर की टि सञ्ज्ञा होती है। जैसे मन में दो स्वर है अन्तिम स्वर न का है। यहाँ 'अस्' समुदाय की टि सञ्ज्ञा होती है। ध्वम' में अम' की टि सञ्ज्ञा है। शब्द के अन्तिम स्वर के बाद कोई व्यञ्जन न हो तो अन्तिम स्वर ही टि कहा जाता है। जैसे 'शक' शब्द में ककारोत्तर 'अ' की टि सञ्ज्ञा होती है।

ओमाडोश्च।

अनुवाद - अकार से, ओम् या आड़ शब्द परे में होने पर (पूर्व + पर के स्थान में) पररूप एक आदेश होता है।
व्याख्या - यह पररूप सन्धि विधायक सूत्र है। यदि अ अथवा आ के बाद ओम् या आड़ का आ हो तो पूर्व + पर के स्थान में पररूप आदेश होता है। यह स्पष्ट सूत्रार्थ है। आङ् उपसर्ग के ड् का लोप हो जाता है, 'आ' शेष रहता है। ओम् अव्यय पद है। आद्गुणः से आत्', 'एडि' पररूपम् से 'पररूपम्' की तथा एक पूर्वपरयो सूत्र की अनुवृत्ति करने पर इस सूत्रार्थ का पूरा ज्ञान होता है। जैसे- शिवाय नमः ओ नमः शिवाय इसका अन्वय है। शिवाय + ओं नमः इस स्थिति में यकारोतर अकार के बाद ओम् शब्द होने से ओमाडोश्च सूत्र से अ + ओ के स्थान पर पररूप आदेश 'औ' हो जाता है।

अन्तादिवच

अनुवाद - जो यह, पूर्व + पर के स्थान में एक होता है, वह पूर्व समुदाय के अन्त के समान (और) पर समुदाय के आदि के समान होता है।
व्याख्या - यह अतिदेश सूत्र है। सादृश्य के आधार पर एक के धर्म अर्थात् स्वभाव का दूसरे के धर्म (स्वभाव) पर आरोप करना अतिदेश कहा जाता है। जैसे गोसदृशो गवय: = गौ के समान नीलगाय होता है, यह स्वरूप का अतिदेश है। यह सूत्र भी अक्षर के धर्म का अतिदेश है। एक पूर्वपरयो' की अनुवृत्ति आती है तथा यथासंख्यमनु0 सूत्र से पूर्व का अन्वय अन्त से तथा पर का अन्वय आदि से होता है तब पूर्वोक्त सूत्रार्थ स्पष्ट होता है। केवल वर्ण में अन्त या आदि होता नहीं अतः पूर्व का अर्थ यह वहाँ 'पूर्ववर्ती वर्ण समुदाय' तथा पर का अर्थ 'परवर्ती वर्ण समुदाय होता है। सूत्र का तात्पर्य यह है कि एकादेश करने से पहले पूर्वसमुदाय में धातु, उपसर्ग आदि जो व्यवहार होते हैं वे ही एकादेश के बाद भी होते हैं, जैसे शिव आ + इहि में आ + इहि यह गुण एकादेश होने के पहले की स्थिति है। यहाँ पूर्वसमुदाय आ में आड़ का व्यवहार किया जाता है अर्थात् उसे आड् कहा जाता है। एकादेश होने पर आ + इ को ए हो जाने से 'आ' नहीं रह गया पर इस अतिदेशसूत्र से ए भी आड् के समान मान लिया जाता है (ए में आङ का व्यवहार किया जाता है) तब शिव + एहि इस स्थिति में आङ् न होने पर भी 'ओमाडोश्च' से पररूप अ + ए = ऐ हो जाता है।

अकः सवर्णे दीर्घः

अनुवाद - अक् प्रत्याहार से, सवर्ण अच् परे होने पर पूर्व + पर के स्थान में  दीर्घ रूप एकादेश होता है।
व्याख्या - यह सवर्ण दीर्घ सन्धि करने वाला विधि सूत्र है। 'इकोयणचि' से 'अचि' पद की तथा 'एक पूर्वपरयो' सूत्र की अनुवृत्ति आती है। समान स्थान तथा आभ्यन्तर प्रयत्न वाले वर्णों को परस्पर सवर्ण कहा जाता है। यह तुल्यास्य, सूत्र में स्पष्ट ही है। अक प्रत्याहार में अ, इ, उ, ऋ, तथा लृ वर्ण आते हैं उनके आगे सवर्ण स्वर के रहने पर यह सूत्र दीर्घ करता है। 'तुल्यास्य0' सूत्र से अ का सवर्ण अ. इ का इ उ का उ, ऋ का ॠ तथा लू का लृ है। यह ध्यातव्य है कि यहाँ केवल 'अ', 'ई. उ आदि हस्व वर्ण ही गृहीत नहीं होते अपितु गविधीयमान होने से अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्ययः के नियमानुसार वे ऊ. ई आदि अपने सभी भेदों के भी बोधक होते हैं। ऐसी दशा में यह सूत्र अ इ उ आदि के ह्रस्व, दीर्घ आदि सभी भेदो के रहने पर प्रवृत्त होता है। स्थानेऽन्तरतमः परिभाषा के कारण दीर्घ आदेश पूर्व + पर के अत्यन्त समान होता है। अकार के दीर्घ में आदगुण' का तथा अन्य वर्णों के दीर्घ में यह इकोयणचि का अपवाद है।

जैसे - दैत्य + अरि, इस स्थिति में दीर्घ एकादेश होता है।

अनेकाल शित् सर्वस्य

अनुवाद - अनेक अलों वाला (आदेश) और शकार की इत्सञ्ज्ञा वाला आदेश सम्पूर्ण स्थानी के स्थान में होता है।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। 'अलोऽन्त्यस्य का यह अपवाद है। वह स्थानी के अन्त्य वर्ण को आदेश का निर्देश करता है पर यह कहता है कि सम्पूर्ण स्थानी को आदेश हो। जिसके स्थान में आदेश हो वही स्थानी है जैसे सुधी + उपास्य यहाँ 'ई' स्थानी है। 'अल्' प्रत्याहार है जिसमें समस्त वर्ण आ जाते हैं। अतः अनेकाल आदेश का अर्थ है अनेक (एक से अधिक) अक्षरों वाला आदेश उदारणार्थ रामै: में राम + भिस् इस स्थिति में 'अतो मिस ऐस सूत्र से मिस् को ऐस आदेश होता है। इस ऐस में दो अल् हैं अतः यह अनेकाल आदेश है। अनेकाल सूत्र की सहायता से पूरे मिस् के स्थान में ऐसा होता है।

शित आदेश का उदाहरण इतः है। इदम् तः स्थिति में इस सूत्र की सहायता से सम्पूर्ण इदम् को 'इदम् इश' सूत्र से इश् आदेश हो जाता है। श् की इत्सञ्ज्ञा होने से इश् आदेश शित है।

 

ङिच्च।

अनुवाद - डकार की इत्सञ्ज्ञा वाला आदेश, अनेकाल हो तब भी अन्त्यवर्ण के स्थान में ही होता है।
व्याख्या - यह परिभाषा सूत्र है। पूर्व सूत्र का यह अपवाद है। अलोऽन्त्यस्य के अलः तथा अन्त्यस्य दोनों पदों की यहाँ अनुवृत्ति आती है। सूत्र का तात्पर्य है कि जिस आदेश में डकार की इत्सञ्ज्ञा होती है वह चाहे अनेकाल ही हो परन्तु स्थानीय के अन्तिम वर्ण के स्थान में होता है। इसका उदाहरण 'गवाग्रम' आगे है।

अवङ् स्फोटायनस्य

अनुवाद - पदान्त में स्थित एड प्रत्याहारान्त गो के स्थान पर अच् वर्ण परे होने पर विकल्प से अवड आदेश होता है।
व्याख्या - एड पदान्तादति से एडः पद अकार गोः का विशेषण होने के लिए षष्ठयन्त हो जाता है, तदन्त विधि से एडन्तस्य' यह अर्थ होता है। उसी से पदान्तात् पद भी अनुवृत्त है जो यहाँ सप्तम्यन्त होकर जुड़ता है। सर्वत्रवि' सूत्र से 'गो' और 'विभाषा' पद तथा 'इकोयणचि से 'अचि' पद आता है। 'स्फोटायन' का ग्रहण सम्मानसूचक है क्योंकि विकल्प विधान के लिए तो विभाषा पद की अनुवृत्ति है ही जैसे गवाग्रम् - गो + अग्रम इस स्थिति में पदान्त तथा एडन्त गो शब्द के पश्चात् अकार की स्थिति होने से 'सर्वत्र विभाषा गो:' से प्रकृतिभाव का विकल्प से विधान होकर गो अग्रम् प्रयोग सिद्ध होता है।

इन्द्रे च

अनुवाद - इन्द्र शब्द परे होने पर, गो शब्द के स्थान पर अवड़ आदेश होता है।
व्याख्या - यह भी विधि सूत्र है। 'एड. पदान्तादति सूत्र से एड: की अनुवृत्ति होती हैं और वह यहाँ गोः का विशेषण होता है अतः उस (एङ) में तदन्त विधि होती है और वह यहाँ षष्ठ्यन्त हो जाता है। 'सर्वत्र विभाषा गो' से गोः पद यहाँ आता है। 'अवड स्फोटायनस्य' से इन्द्र शब्द से परे भी अवड़ हो जाता फिर भी यह सूत्र बनाया गया। अतः 'इन्द्रे च से होने वाला अवड आदेश सूत्र विधान-सामर्थ्य से नित्य होता है।

दूराद्धूचे च

अनुवाद - दूर से सम्बोधन करने अर्थात् पुकारने में प्रयुक्त वाक्य की टि को विकल्प से प्लुत होता है।
व्याख्या - यह प्लुत विधायक विधि सूत्र है। यहाँ अच् सन्धि तक प्रकृतिभाव (स्वरों में परिवर्तन न होने) के विधायक सूत्र आये हैं। प्लुत स्वर को प्रकृतिभाव होता है अतः उसका विधायक सूत्र प्रथम निर्दिष्ट है। इस सूत्र में 'वाक्यस्य टेः प्लुत उदात्तः' अधिकार सूत्र के सभी शब्दों की अनुवृत्ति आती है। महाभाष्य के अनुसार सम्पूर्ण प्लुत विधान वैकल्पिक है। अतः यह भी विकल्प विधान है। धूत शब्द का अर्थ है आहवान या सम्बोधन। जहाँ सहज प्रयत्न से सम्बोध्य (जिससे कहा जा रहा है, श्रोता) को अभिमुख न किया जा सके अर्थात् जिस स्थान पर सम्बोध्य व्यक्ति विशेष प्रयत्न से वाक्य सुन सकता हो उसे दूर कहा जाता है। दूर देश में सम्बोध्य को पुकारने में प्रयुक्त वाक्य में टि को यह प्लुत करता है। ध्यातव्य है कि यदि सम्बोध्य का नाम वाक्यान्त में होगा तभी उसकी टि को प्लुत होगा अन्यथा नहीं। जैसे आगच्छ कृष्ण 3। यहाँ तो प्लुत होगा, परन्तु कृष्ण ! आगच्छ। यहाँ नहीं। इस नियम का पालन हम दैनिक व्यवहार में भी करते हैं। धूत शब्द का अर्थ सम्बोधन है अतः जहाँ पुकारने का भाव न हो वहाँ भी सम्बोध्य की टि को प्लुत हो जाता है, जैसे- पयः पिब रमेश 3 |

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
  5. प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  8. प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
  9. प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  10. प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
  11. प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
  12. प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
  13. प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
  14. प्रश्न- ऋतुओं का सर्वप्रथम ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?
  15. प्रश्न- पौराणिक युग में भारतीय विद्वान ने विश्व को सात द्वीपों में विभाजित किया था, जिनका वास्तविक स्थान क्या है?
  16. प्रश्न- न्यूटन से कई शताब्दी पूर्व किसने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त बताया?
  17. प्रश्न- प्राचीन भारतीय गणितज्ञ कौन हैं, जिसने रेखागणित सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया?
  18. प्रश्न- गणित के त्रिकोणमिति (Trigonometry) के सिद्धान्त सूत्र को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ का नाम बताइये।
  19. प्रश्न- 'गणित सार संग्रह' के लेखक कौन हैं?
  20. प्रश्न- 'गणित कौमुदी' तथा 'बीजगणित वातांश' ग्रन्थों के लेखक कौन हैं?
  21. प्रश्न- 'ज्योतिष के स्वरूप का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- वास्तुशास्त्र का ज्योतिष से क्या संबंध है?
  23. प्रश्न- त्रिस्कन्ध' किसे कहा जाता है?
  24. प्रश्न- 'योगदर्शन' के प्रणेता कौन हैं? योगदर्शन के आधार ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  25. प्रश्न- क्रियायोग' किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- 'अष्टाङ्ग योग' क्या है? संक्षेप में बताइये।
  27. प्रश्न- 'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस' पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  28. प्रश्न- आयुर्वेद का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  29. प्रश्न- आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्तों के नाम बताइये।
  30. प्रश्न- 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' का सामान्य परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- काव्य क्या है? अर्थात् काव्य की परिभाषा लिखिये।
  32. प्रश्न- काव्य का ऐतिहासिक परिचय दीजिए।
  33. प्रश्न- संस्कृत व्याकरण का इतिहास क्या है?
  34. प्रश्न- संस्कृत शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? एवं संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ और उनके रचनाकारों के नाम बताइये।
  35. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  36. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
  39. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्यगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- महाकवि कालिदास के पश्चात् होने वाले संस्कृत काव्य के विकास की विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय देते हुए यह भी बताइये कि उन्होंने रामायण की रचना कब की थी?
  42. प्रश्न- क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि माघ में उपमा का सौन्दर्य, अर्थगौरव का वैशिष्ट्य तथा पदलालित्य का चमत्कार विद्यमान है?
  43. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालते हुए, उनकी कृतियों के नाम बताइये।
  44. प्रश्न- आचार्य पाणिनि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  45. प्रश्न- आचार्य पाणिनि ने व्याकरण को किस प्रकार तथा क्यों व्यवस्थित किया?
  46. प्रश्न- आचार्य कात्यायन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  47. प्रश्न- आचार्य पतञ्जलि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  48. प्रश्न- आदिकवि महर्षि बाल्मीकि विरचित आदि काव्य रामायण का परिचय दीजिए।
  49. प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
  50. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
  51. प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
  52. प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
  54. प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- 'भारवेर्थगौरवम्' की समीक्षा कीजिए।
  56. प्रश्न- रामायण के रचयिता कौन थे तथा उन्होंने इसकी रचना क्यों की?
  57. प्रश्न- रामायण का मुख्य रस क्या है?
  58. प्रश्न- वाल्मीकि रामायण में कितने काण्ड हैं? प्रत्येक काण्ड का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  59. प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  60. प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
  61. प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
  62. प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
  63. प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
  64. प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
  65. प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  66. प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  67. प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  68. प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
  69. प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
  70. प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  71. प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
  72. प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
  73. प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  74. प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  75. प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  76. प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  77. प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
  80. प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
  81. प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
  84. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  85. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
  86. प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
  88. प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
  90. प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
  91. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
  92. प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
  93. प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
  94. प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
  95. प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
  96. प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
  97. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
  99. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
  100. प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
  101. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
  103. प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
  104. प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
  105. प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
  106. प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
  107. प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
  108. प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
  109. प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
  110. प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
  111. प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
  112. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
  113. प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
  114. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
  116. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
  117. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।

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